Posts

Showing posts from February, 2019

बड़ा आदमी / अनिल दाश

रचनाकार:  अनिल दाश (1970) जन्मस्थान: कविता संग्रह:  ओड़िया,संबलपुरी तथा कौशली भाषा की स्थानीय पत्र–पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित हमारे गांव का गंवार आप से अच्छा किसी के मरने पर घाट तक तो जाता है लकड़ी पुआल इकट्ठा करता है शादी-ब्याह में पानी ढोता है दरी बिछाने में मदद करता है मेलों और उत्सवों में यथाशक्ति, चंदा देता है। आप तो अमावस के तारे की तरह न बारिश होने देते हो, न एक घडी उजियाला करते हो। हम कहते हैं आपको अपना पर आप समझते हैं हमे पराया अशुद्ध ब्राहमण के बदले हुए गमछे की तरह कभी हमारे व्यवहार से नफरत करते हो तो कभी प्रसूती के अधसूखे वस्त्र की तरह हमारे काराबोर को अछूत गिनते हो। आप भीड़ के बीच बैठते हो हम किनारे पर खडे रहते हैं आप मंच से भाषण देते हो नीचे से हम सुनते हैं आपको डॉक्टर पहले देखता है हम कतार में प्रतीक्षा करते हैं आप जमीन एकड में जोतते हो हम विस्वा में गुजारा करते हैं आपको रूपए हजारों फेंकने में मजा आता है हमें चवन्नी देने में पसीना आता है आप भीख को भी हक से मांगते हो हम हक को भी भिखारी की तरह हमें क्या फायदा आप विदेशी रंग में डूबो या हेलीकॉप्टर में उडो ? व

चाय का प्याला / दुर्गा प्रसाद पंडा

रचनाकार:  दुर्गाप्रसाद पंडा (1970) जन्मस्थान:  बारिपादा कविता संग्रह:  निआं भीतरे हात (2006),पोस्टकार्ड कविता गाँव के मुहाने पर झोपड़ी होटल में छप्पर के नीचे शहर में नहीं दिखने जैसी जगह पर हमेशा झूलता है चाय का एक मैला प्याला क्यों झूल रहा है वह चाय का प्याला, नीचे रखे हुए दूसरे चाय के प्यालों से पूरी तरह अलग होकर ? छप्पर के नीचे कालिख लगे कोने में जिसके पास समय असमय दूर से आता संभ्रम कुंठा से बढ़ता एक कमजोर हाथ। थोड़ी दूर खड़ा होकर पूरी चाय पीकर प्याले को धोकर वापस लटका देता है उस कोने में। फिर चाय का प्याला उस जगह गया कैसे ? यह सवाल फण उठाकर बार बार इधर-ऊधर मेरे रास्ते में रूकावट करता है मैं सोचता हूँ मैं वास्तव में ऐसे निरीह जीव को नहीं जानता हूँ चाय के प्याले का वहाँ झूलने का रहस्य मेरा निरीहपन नहीं है किसी कुंवारी कन्या का अनाहत सतीत्व इतना दुर्मूल्य और पवित्र जिसे मैं ढककर रखता हूँ खूब मेहनत से। मैं स्वयं से पूछता हूँ क्या मेरी कविता का हाथ लंबा होकर उतारकर ला सकता है वहाँ से चाय के प्याले को और मिलाकर रख सकता है दूसरे प्यालों के साथ ? बुरी तरह से घायल हो गया इस निरीह

मन आकाश का चंद्रमा / मनोरंजन महापात्र

रचनाकार:  मनोरंजन महापात्र (1969) जन्मस्थान:  भुवनेश्वर कविता संग्रह:  ओड़िया स्थानीय पत्र–पत्रिकाओं जैसे भूलग्न,सूत्रधार,नीलकईं का सम्पादन । मेरे मन के आकाश में अगर तूँ चंद्रमा बन जाए तो मैं इस चन्द्रमा से क्यों प्रकाश मागूँगा ? अगर तुम रातरानी के फूल बनकर हर दिन मेरे झरोखे के पास खिलने लगो क्यों मैं फाल्गुन को चिट्ठी लिखूँगा, कहो ? अगर तुम गंगा बनकर मेरे रास्ते में बहो, तो मैं क्यों काशी, वाराणसी जाऊँगा। अगर तुम अपनी इच्छा से अनुसूया बन जाओ क्यों 'लक्ष-हीरा" की कोठरी में मैं रात को बिताऊँगा मेरे हृदय की सरिता ऐसे भर जाती है तुम्हारी इच्छा के काशतंडी फूल में विनिद्र होकर संभाल लूँगा तंद्रा से भरी रातें कामना के सोमरस के साथ कृष्ण तिथियों में।

भेंट / सुचेता मिश्र

रचनाकार:  सुचेता मिश्र जन्मस्थान:  लीड बैंक लेन, पोलिस लाइन,पुरी-751002 कविता संग्रह:  पूर्वराग (1991),शीला-लिपि (1995) मेरे भीतर क्या देख रहे थे मेरे जीवन की अच्छाइयों या बुराइयों को, तुम क्या खोज रहे थे विनाश, उत्थान या पतन टूटी हुई चौखट के कुचले हुए प्रेम में ? हम दोनो बहुत समय से चाय पी रहे थे अंधेरे हवारहित कमरे में गरम चाय की तरह हमारे आँसू भी गरम थे। तुमने कहा था जीवन में ऐसा क्यों हुआ वैसा क्यों नहीं हुआ मुझे लगा हम चाय क्यों पी रहे हैं हमारे भीतर खलबली गले तक प्यास से मैने तुम्हें गिलास पानी दिया पानी के भीतर मेरा डूबा प्रतिरूप कुछ पृष्ठ किसी की एक अंतहीन पवित्र प्रतीक्षा । तुम अचानक खड़े हो गए अविकल नहीं झुकने वाले  सड़ी हुई जड़ों वाले  पेड़ की तरह  कहने लगे, “जा रहा हूँ।”

पटरानी / मोनालिसा जेना

रचनाकार:  मोनालिसा जेना (1964) जन्मस्थान:  मुकुंद प्रसाद, खोर्द्धा कविता संग्रह:  निसर्ग ध्वनि (2004), ए सबु ध्रुव मुहूर्त (2005),अस्तराग (असमिया से ओड़िया में अनूदित) इस ‘मानसी’ शब्द से जिसने मुझे पहली बार बुलाया था ? जिसने दिया प्रेम का प्रहार बिना अपराध के ? एक बंद कोठरी के नीले मायालोक में मैं धीरे- धीरे हल्की हो गई थी जिस प्रकार उड़ती प्रजापति की तरह जिस प्रकार झरती हुए पंखुडी की तरह और उसके बाद ? पश्चिम घाट के उस शिखर पर नाहरगढ़ की उजड़ी राजगिरि और लहू से भरी खाड़ी की तरह दीर्घ श्वास, पांच शताब्दी का...। उस समय मैं थी शायद एक पहाड़ी राजा की पटरानी राजा भ्रमण से लाया था मुझे नाच नहीं, गीत नहीं, बाजा नहीं, वेदी नहीं प्रेमी की पहली पसंद, पटरानी हंसिनी को समर्पित कर रहा था शतस्वस्ति, लक्ष्यहीन तीर राजकुमार का.....। तब भी उस स्थापित राममहल के भीतर में प्रणय प्रार्थिनी, नौ रानी हम कोई गूंथती मोती माला कोई सिलती है मसलीन बूट और कोई सजाती है व्यस्क राजा के चौसठ कला विन्यास में...। मैं प्रेम में जैसे पागल अतिक्रांत प्रतीक्षा में पांच राते ध्यान टूटा नहीं सड़ गया राजा का राजभोज

हाथ / खिरोद कुंवर

रचनाकार:  खिरोद कुंवर (1964) जन्मस्थान:  राजपुर, ब्रजराजनगर कविता संग्रह:  गाँ घर रे कथा (2005), पाहा तलरे छाएं (2010) काई लगी दीवार से खिसकती है जैसे पुरानी चिपकी हुई मिट्टी हाथ से खिसक जाते हैं वैसे प्यार, मुहब्बत और अपनापन। आग से खेलते खेलते फुर्सत कहाँ मिलती है हाथ को ? अपना पराया,ईर्ष्या आलोचना का समय तो पहले से ही खत्म हो गया । हाथ में अब कहाँ रह गया वह जादू उम्र की तलवार धार जैसे चढाव चढने वाले लोगों में । कहीं यह हाथ बहुरूपिया तो नहीं या फिर अंधेरी तंग गली में रेंगने वाला कोई सांप ? खूब लंबी पहुँच वाले हाथ असंभव को संभव करने वाले हाथ के करीब रहने के लिए हर कोई आतुर भले कुछ भी हो उसकी प्रकृति। क्या हाथ शरीर के नियंत्रण में होता है, विवेक की सुनता है ? या फिर यह हाथ अमृत की तलाश में भटकती कोई जोंक  ? शिखर पर पहुँचने के लिए निर्लज्ज होकर जोडता रहता है हाथ बार-बार कभी काट डालता है उसके बराबरी में उठने वाले दूसरे हाथों को।

लडकी देखना / वासुदेव सुनानी

रचनाकार:  वासुदेव सुनानी जन्मस्थान:  मुनिगुडा, जटगड,नुआपाड़ा कविता संग्रह:  अनेक किसि घटिबारे असि (1995),महुल बण(1998),अस्पृश्य (2002),करड़ि हाट ( 2005), छि: (2008), कालिआ उवाच (2010) क्या जरूरत मुँह पर पाउडर लगाने की पसीने के लिए इत्र की जब ऐसी चंचलता हो शरीर के रोम-रोम में,  बलुई मृदा में प्रस्फुटित होते चाकुंडा पेड़ के नए पत्तों की तरह सारे सपनें साकार होते दिखते जैसे ही लड़की देखने की खबर मिलती दुनिया में सब स्वाभाविक लड़की की उम्र तीस साल शादी के बाजार में बीतती उम्र पीठ पर चलते केंचुए की तरह पास की दुकान से सुनाई पड़ने वाले हिंदी सिनेमा के हिट गीत या पड़ोसी घर की भीड़ के असहनीय कोलाहल में कुछ भी सुनाई नहीं देना जैसे- जैसे समय पास आता जाता उसके मुख का तेज निखरता जाता छाती में गाम्भीर्य, कमर में कोमलता,  पाँवों में नम्रता आँखों में चपलता धीरे- धीरे प्रकाशित करती जाती घर द्वार पड़ोस परिजन सारा परिवेश और सँभाल नहीं पाती लड़की नाचने लगती माँ की चोंच में तिनका देखकर नए नए पैर निकलते नवजात चिड़िया की तरह फुदक ने लगती छोटी छोटी पोखारियों में पानी देखकर आषाढ़ की ब्राह्मणी मेंढ

शोभावती / शंकर्षण परिड़ा

रचनाकार:  शंकर्षण परिड़ा (1961) जन्मस्थान:  इंद्रप्रस्थ,सर्वोदयनगर, पुरी कविता संग्रह:  माया-मंच(1995), शब्द-दर्पण (2005), अँग्रेजी अनुवाद (वायस ऑफ मिरर) (2010), चित्राक्षर (2011) मैं जानता हूँ मेरी आँखें नहीं है फिर भी मुझे दिखाई पड़ रहा है तुम्हारा सौन्दर्य और गुणवत्ता का अक्षुण्ण नारीत्व ! शोभावती दृश्य ! मेरे कान नहीं है फिर भी मुझे सुनाई पड़ रही हैं  तुम्हारे आवेग और उन्माद में तल्लीन और तन्मयमिश्रित तान तुम्हारे प्रणय राग के ललित मधुर स्वरों का आरोहण- अवरोहण। वास्तव में मेरा मुँह नहीं है मगर उच्चारण कर सकता हूँ ललित लवंग लता प्रिय प्रियतम निशब्द कविता बिना होठों के स्पर्श करता हूँ  तुम्हारी भीगी पलकों को बिना कंठ के गा सकता हूँ आँसू की गजल, खून की कविता मेरे पाँव नहीं है फिर भी कह नहीं पाऊँगा अच्छा होता अगर मेरे पक्षियों जैसे पंख लग जाते मैं तो योजन- योजन घूम सकता हूँ मैं तो तुम्हारा तन- मन स्पर्श कर सकता हूँ मैं शोभावती प्रियतमा को समझ सकता हूँ तुम्हारी निर्नाद नीरवता और मन्द मधुर सम्मोहन। मेरे हाथ नहीं है फिर भी तुमको पकड़ सकता हूँ मेरे उदग्र आलिंगन में देह की दहलीज

बाबनाभूत / गजानन मिश्र

रचनाकार:  गजानन मिश्र जन्मस्थान:  तपोवन, टिटिलागढ़,बोलांगीर कविता संग्रह:  सर्वनाम,नथिबा चित्र,स्टेशन,कविताघर,गोटापणे,चेरैवेति,बाहुड़ा,काल काल,नाब,अमृत सबु,अहर्निशि, महारेखा सर्वत्र घूमता है। कहाँ रहेगा ? किसके घर में ? योजन- योजन दूर से चंद्र और सूर्य को निरखते बैठे रहता है बरगद के पेड़ के फैले अंधेरे में या सेमल-पेड़ के लाल- लाल फूल लेकर अन्दर आता है वह ईमली-पेड़ की टहनी से सीखाना होगा उसे उचित व्यवहार किसका घर ? मंदिर की पताका ? समुद्री ज्वार-भाटा  ? धूल धुसरित होकर वापस रास्ते के बीच में खड़ा है बंधु परिजनों से मिलकर कहने के लिए जीवन का भग्नांश बल्कि उस समय नहीं था, न होगा क्रियाकर्म करके इधर -उधर लौट जाता है कहीं वह सर्वप्रथम और सर्वशेष राष्ट्रदूत की तरह । उसका कोई और परिचय नहीं है . युद्ध-समाप्ति के भग्नावशेष में खोजता है वह स्नेह, प्रेम भाव का अपूर्व मिश्रण शत्रु-मित्र का . शून्य आकाश किसलिए बुलाता है मुसकराते हुए जब तक नया जीवन रहेगा हरे संकेत लेकर धीमे पांवों से चलता है वह मिट्टी में आगे-आगे । पड़ी हुई हरी घास रख पाएगी मखमली कीड़ों का एकाधिपत्य ? खड़ा रह जाता है चौ

घर, घर नहीं रहा / उदय नाथ बेहेरा

रचनाकार:  उदय नाथ बेहेरा (1954) जन्मस्थान:  कंटिओ,ढेंकानाल कविता संग्रह:  ओड़िया-भाषा की स्थानीय पत्र–पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित ठीक था, ऊँट तंबू के बाहर था अंदर आते ही उँगली पकड़कर पनहुचा पकड़ लिया तंबू तो गया, सब कुछ बरबाद भी हो गया अंदर के लोगों के सर पर, आसमान छत बन गया । ठीक था, घर खाली था सोचा था समान लाना सुखदायक होगा, पर यह तो सुखदायक बनेने लगा,  अदमी की जगह डिंबों ने ले लिया घर अब घर नहीं, कचरों का दबा बन गया सामानों की दया पर अदीमी निर्भर हो गया पहले अदीमी अंधार था, अब बेघर हो गया घर से बाहर हो गया । ठीक था पहले सामान कम था अदीमी था, आदमीयत भी थी पर सामानों के राज में आदमी गरीब हो गया उसकी आदमीयत, प्यार –मुहबबता खोखली हो गई डिबम्बो, कार्टून की तरह खाली हो गई अब सब शब बन गये,  चलते फिरते शरीर से मानों प्राण निकल गये ।

सबके बाद भी तुम हो / अन्नपूर्णा महांति

रचनाकार:  अन्नपपूर्णा मोहंती (1953) जन्मस्थान:  माधवपुर, केन्द्रपाड़ा कविता संग्रह:  रूटि और ऋत (1987),पाद-स्पर्श (1989),नीलनदीर लुह(1991), नीलमेघ(1993), निशब्द वात्या (1999),एकाएका (2001) ,सारा स्वप्न (2003), मुहूर्तन्कर मोक्ष (2008), देह-विदेह (2009), यंत्रस केते निजर (2011),माटि कुंठेई (2011), अनुवाद :- सिंधी से ओड़िया (याद का ही प्यार जी –श्री कृष्ण खोटवानी ) हवा को मना कर दिया है तुम्हें नहीं दे मेरे शरीर की गंध बादल को मना किया है सारे आंसू धारा बनकर तुम्हारे आगे बरसेंगे नहीं। समय की ग्रीष्म यात्रा सभी समय बराबर नहीं होते  मेरा अपने आप पर अखंड -विश्वास तुम क्यों सहन करोगे मेरे लिए दुखों का श्रावण ! भावनाओं के दिन थे नहीं लौटेंगे हृदय के रक्तरंजित दिन स्वामी और संतान से छुपाकर जीवन के जलते हुए मध्यान्ह में आज भी नहीं है कि तब भी नहीं थे वे तुमको कभी भी नहीं मिल सकते जिंदा रहने के लिए अनाहत फाल्गुन दूर में हो तो रुक जाओ एक तीव्र इच्छा छटपटा रही है स्पर्श की प्यास लेकर दृष्टि के लिए चपलता के लिए अतृप्त दीर्घ प्यास लेकर जीवन से और एक जीवन को पूरा करने के लिए। तब भी नहीं प

आंधी / हर प्रसाद परिछा पटनायक

रचनाकार:  हर प्रसाद परिछा पटनायक (1953) जन्मस्थान:  बिक्रमपुर, गंजाम कविता संग्रह:  एका एका सन्यासी (1981), अथय सूर्य (1992), आयुष्मान समय (1995), सबु अंधार आजि रातिरे (1996) सनातन, तुमने आँधी देखी है, ईश्वर के प्रकोप को ? ठीक तीन बजे चहल-पहल से भरा सारा शहर चिंता से थम गया पूरी तरह दूर-दूर तक, दिग्वलय तक दिखने लगा पीला रंग पेड़- पौधे हो गए स्थिर फोन के खंभों की तरह अंधेरें जैसे बुरी तरह थम गया समय उसके सामने समय कितना बुद्धू और लाचार साँय-साँय के कोलाहल में उड़ गए पक्षी सभी दिशाओं में रोने लगी गायें बच्चों की तरह उस अंधेरे आतंक में इधर-उधर भागी, मगर लौटा दिया पेड़ों ने गुंबद की तरह सभी उठे आकाश को लौटकर चले गए पूर्व दिशा में असमाप्त वेदना लहरों की तरह दौड़ी बंग सागर में। चिड़ियों की चहचहाहट मिली पानी के साथ तब भी हवा उनके पीछे भागी रेत, धूल, पेड़-पौधे, सूखे पत्ते छत, एस्बेस्टॉस, तंबू, लाइट पोस्ट जगह- जगह रिक्शे और केबिन उड़ने शुरु हुए हवा के साथ मतवाली चिड़ियों की तरह उड़ते हुए आए अस्त्र की तरह जिस किसी के रास्ते में । सनातन, तुमने कभी पवन देखी है, पवन के प्रकोप को ? अग्नि

देवी / चंद्र मिश्र

रचनाकार:  चंद्र मिश्र (1952-?) जन्मस्थान: कविता संग्रह:  24वर्षर चंद्र मिश्र महर्षियों के वीर्य से निर्मित तुम्हारे शरीर के गोरे अंगों से छल-कपट के सारे वस्त्र उतारकर जीवन का बोझ ढोने में अक्षम मेरे कंधों पर सपनों के पंखों में तुम्हारे चरण निषिद्ध नायिकाओं के दुस्साहस निर्मित अव्यर्थ अस्त्र घोप दिए मेरे हृदयहीन छाती में रतिनिबिड़ आलिंगनबद्ध तुम्हारे सशक्त हाथों ने कसकर पकड़ रखा है चिरकाल चिंता में डूबे मेरे सिर को, मैं वीभत्स नपुंसक मेरे भीतर खोज रही हो तुम एक समर्थ प्रेमी। कपटी राक्षस के खोल के अंदर मैं हूँ धूर्त महिषी की हीन-मन्यता देवी अहंकार का प्रत्येक अट्टहास मेरी असामर्थ्यता का गुप्त रूदन, भय और संदेह मेरे दो नुकीले सींग, अपने आप पर गहरा अविश्वास ही मेरा अत्याचारी सैन्यसामंत । तुम आत्मप्रत्यय की तरह अकेले और अनासक्त। मैं बर्बर आक्रमक की ग्लानि जैसे पलातक  तुम सत्य की तरह नग्न जिसके अमरत्व के वर और कवच में ढका है मैने अपना ध्वजभंग । मैं दूसरों को नंगा कर सकता हूँ रात के अंधेरे में किंतु डरता हूँ स्वयं को निर्वस्त्र करने से यहाँ तक स्वयं के सामने भी। राक्षस तो नपुंसक ह

नष्ट नारी / अपर्णा महांति

रचनाकार:  अपर्णा महांति (1952) जन्मस्थान:  कपालेश्वर,केंद्रपाड़ा-754211 कविता संग्रह:  अव्यक्त आत्मीयता (1991),असती (1993) अपर्णा पहचानो एक साधारण नारी के स्वाक्षर। पलक झपकते ही मिटाने से मिट जाएंगे पढ़ने बैठोगे तो पढते रह जाओगे युग -युग तक आदि काल से आजतक.... कितनी माया कितना मोह कितना दाह कितना द्रोह कितने आंसू कितना लहू इतिहास के सजीव शिलालेखों में कलात्मकता से अंकित कई साहसी नष्ट-नारियों के कुछ अक्षर तैंतीस करोड़ देवी- देवताओं के सामने दुर्गा के निर्वस्त्र होने से लेकर अहिल्या का पत्थर बनना सीता की अग्नि परीक्षा और पाताल में प्रवेश पांचाली का जुए में बाजी लगना आदि जाने सुने असाधारण असहायता के उदाहरण । गार्गी के सिर कलम करने की धमकी खना की कटी जीभ का कारुण्य रूप कंवर का जिंदा सती होना बनवार का सामूहिक बलात्कार तसलीमा की मौत का फतवा अपनी आँखों से देखकर पिता के निर्मम प्रहार से क्षतविक्षत माँ के शरीर को सहलाते समय भगिनी की जलते चर्म की आग बुझाते समय निरापद अँधेरे में स्व-शून्यता की दिशा में मुँह करके दौड़ते हुए बेटी को लौटा लाने में लगी रक्ताक्त ठोकर । प्रेमी, पति, पुरुष क

बहुत दिनों बाद बालियापाल / मनोरमा महापात्र

रचनाकार:  मनोरमा महापात्र (1947) जन्मस्थान:  जगाई ग्राम, बालेश्वर कविता संग्रह:  किसलय(1963), व्रतती(1966), फूल फूटा मुहुर्त(1978), स्मृति श्रावण ओ प्रतिबिम्ब(1978), स्वातिलग्न(1979), जह्नरातिर मुहँ(1981) केते कथा केते गीत(1982), एकला नई गीत(1990), थरे खाली डाकी देले (1992), फाल्गुनी तिथिर झिअ(1998) आकाश झुका हुआ था यहाँ आलिंगन की मुद्रा में हरे धान के खेतों के ऊपर सर्दी के धुंए और लहलहाते सरकण्डों की हवा में तैरते सपना देखते सूर्योदय और सूर्यास्त की गेरुआ धूप में। मुझे कौन खींच लाया है यहाँ ? काजू और कटहल की विस्तीर्ण श्यामल उपत्यका इस बालियापाल को। खेत खलिहानों के धान को चूमकर लौटते सुगंधित हवा के इलाके को। कौन मुझे खींच लाया यहाँ ? चकुली पीठा की खुशबू से भरी धरती को मेरे सुगंधित शैशव को मेरे अतीत को मेरे भोले बचपन को बहुत दिनों बाद इस बालियापाल को ? अचानक याद आने लगा, सब कुछ मामा का चकुली पीठा कलम साग की खुशबू गर्मी की छुट्टियों में गांव की खुशहाली मैं थकाहारा राही आज केवल घड़ी भर सुस्ताऊँ मेरे गांव की स्मृति की छाया में।

बदली / प्रसन्न पाटशानी

रचनाकार:  प्रसन्न पाटशानी (1947) जन्मस्थान:  बालुगांव, पुरी कविता संग्रह:  लेनिन(1976), बाघ आँ भितरे पिकनिक(1976), वर्षा(1981), शहे एक कविता(87), खोर्द्धार कविता मुँ पढ़े(1988), अमरनाथ(1990), देखा हेले कहिबि से कथा(1990) आकाशर काठगड़ारे बंदी सूर्यंकु जेरा(1992) नील नूपुर(1992), साप गातरे सकाल, रक्तपथ आकाश दिख रहा था बड़े साहब के आंगन की तरह चन्द्रमा की तरह सफेद विलायती कुत्तिया मुंह छुपाकर सोई पड़ी थी बादलों के बरामदे में। तारें पके मांस के टुकड़ों की तरह छितरे पड़े थे। ग्रहों का प्रकाश हाथ जैसे झूल रहा था बादलों के दांतों में। कुत्ते के मुंह से लार की तरह गिर रही थी बीच- बीच में आकाश से पानी की बूँदें भिगो देती थी धीरे-धीरे बगीचे के पास के रास्ते को। आज का संध्या-भ्रमण निरस्त मैम- साहिबा मिट्टी के हृदय के ऊपर मदिरा के प्याले की तरह ढलढल हो रही थी रात्रि की अलस तंद्रा में। फाइलों का काम करना होगा रिलीफ मिला या नहीं बाढ़ का पानी कम हुआ या नहीं मैम- साहिबा ने पूछा “महानदी में तो पानी ही नहीं फिर बाढ़ आई कब ? जैसे तुम ऊपरी न मिलने पर अचानक बरस पड़ते हो मेरे ऊपर वैसे ही थोड़ी व

झूठ की कहानी / आशुतोष परिडा

रचनाकार:  आशुतोष परिड़ा (1946) जन्मस्थान:  भुवनेश्वर कविता संग्रह:  मुक्त यातना (1973),इपसित क्रोध (1987),चांडाल (1991),शब्द-भेदी (1995) मेरे सिवाय और कौन जानता है झूठ भी इतना पवित्र हो सकता है और हमारे लिए एक पवित्र देश का निर्माण कर सकता है ! हम पानी के साथ झूठ को पीते हैं हवा के साथ साँस में लेते हैं खाने में खाते हैं उसको नींद में स्पर्श करते हैं पोशाक में पहनते हैं सिर पर बाँधते हैं और उसकी गंध में हर समय झर्झर होते रहते हैं । परत के ऊपर परत जम गया है झूठ का पहाड़ कौन उसमें से केवल रत्न खोजता चलेगा कौन उसके ऊपर नक्षत्र पकड़ने के लिए चढ़ेगा फिर कौन उसकी तलहटी में गिरेगा मिट्टी और पत्थर चबाने के लिए झूठ ने हमें परत दर परत पकड़ रखा है । कौन जानता है कब झूठ का प्रथम बीजारोपण इस धरती पर हुआ था। छल-कपट का पहला फल पेड़ की डाली पर कब पका था, उस समय सारे देवताओं  ने खाकर हजम कर लिया था मनुष्यों की हड्डी और मांस, घुस गए थे सभी अमुंहा मंदिर में और प्रार्थना से सारे झूठ पवित्र हो गए । झूठ के पास हमने समर्पित कर दिए अपने आँसू और आयु एक गहरे गड्ढे के अंदर धँस गए पाँव  एक शून्यता के

कविता पागल की चिट्ठी / हरप्रसाद दास

रचनाकार:  हरप्रसाद दास (1945) जन्मस्थान:  गजराजपुर, कटक कविता संग्रह:  आलोकित वनवास (1978), मंत्रपाठ (1991), गर्भगृह (1993), दूरत्वर भ्रम (1994) कहीं से आए या न आए प्रति सप्ताह में एक बार अवश्य आती है उस पागल की चिट्ठी सुदूर साल जंगल से घिरे किसी एक गांव से, लिखता है एक पागल संक्षिप्त में सारी दुनिया की खबर सुनाता है एक या दो असंभव कहानी के आरंभ फिर बताता है मुझे लाल सागर के अंदर जहाज चलाते उसके किसी नाविक पुत्र की आत्म हत्या का सही समय सूर्य पूरी तरह से शीतल होने से पहले, मरने के लिए यह मनुष्य का अंतिम अवसर आदत पड गई पढने को उसकी चिट्ठी नहीं पढ़ पाने पर कम सेकम उन पर नजर डालने की संभल कर रखी मैंने उसकी हर एक चिट्ठी इस तरह कई साल बीत गए। पागल अच्छा है भाले की नोंक जैसे उसके अंसतोष के बिखरे नुकीले अक्षर बरसते जा रहे है पथरीली जमीन पर मैं भी अच्छा इंसान हूँ पागल की भर्त्सना न कर उसकी चेतावनी की तरफ ध्यान दिए बिना, निश्चिंत होकर उस भाव से मानो पागल की चिट्ठी आते रहते समय तक पृथ्वी बची रहेगी,  सूर्य किरणों में रहेगी गरमी और फलों में लगातार रस सृष्टि की नरमी लाल सागर का वह नाविक

साहड़ा सुंदरी / प्रतिभा शतपथी

रचनाकार:  प्रतिभा शतपथी (1945) जन्मस्थान:  सत्यभामापुर, कटक कविता संग्रह:  अस्तजन्ह रे ऐलीजी(1969), ग्रस्त समय(1974), साहाड़ा सुंदरी(1978), नियत वसुधा(1986), निमिष अक्षर(1985), महामेघ(1988), शवरी(1991), तन्मय धूलि(1996) मै क्या ! मुझसे भी कई गए गुजरें हैं पेड़- पौधें, आकाश, पवन सांझ के विविध वर्ण सुबह का हँसता खिलखिलाता चेहरा किसका साहस है जो शांत करेगा तुम्हारी पूर्ण शून्यता से पैदा हुई निर्बोध व्यथा को  ? मै क्या किसी दूसरे लोक का हूँ ! उसका लुभावना रूप हँसना, रोना, बातें करना इस्तरी की हुई साड़ी पहनना पेंसिल से भृकुटी बनाकर घूमना बाजार करना, घर सजाना अकेले में उसकी उदासी को मैंने अपनी आँखों से देखा है. साहड़ा पेड के गंदे तने में छुपकर मैं धूप में तपा बारिश में भीगा, ठण्ड में ठिठुरा हे सुंदरी ! तुम्हारी अस्थिरता ने मुझे भीतर से झकझोर दिया कितने पर्व- त्योंहार की तिथियाँ तुम्हारी उदासी और दुःख के नीचे दबकर रह गई . तुम्हें कैसे ये सब पता नहीं चल रहा है मेरे पास इससे अधिक कुछ भी नहीं है. मेरे कानों में दिव्य-रथ की घर्घर आवाज कभी सुनाई नहीं पड़ेगी रिमझिम-बारिश जैसे धीमे- धीमे

अकेला / अकेला ताड पेड़ / हरिहर मिश्र

रचनाकार:  हरिहर मिश्र (1944) जन्मस्थान:  मार्कण्डेश्वर साही, पुरी कविता संग्रह:  शंख-नाभि (1973), अक्षम देवता (1978), चन्द्रबिंब (1981), लालकढ़र तपस्या (1981), चाहाणी मंडप (1987), सूक्त शतक ,स्वप्न विनिमय (1992), भित्तिर चंदन (1994), मोहनी कन्यार विष (1995), संध्यादर्शन (1998) है भी या नहीं भी इसी विश्वास के साथ समय पार करते आदमी को मैदान में बुला रहे हो ? बुलाते रहो पुराने परेड की तरह चल रहा है तिरेसठ वर्षीय सेवा निवृत आदमी की तरह यह स्वाधीनता कभी हँसती है जब अपना इतिहास बताती है तो कभी रोती है न सूखने वाले घाव की पीड़ा से बालकोनी में खड़े होकर लंबा आदमी देख रहा है भीड़ को किसी एक फ्लू संक्रमित सांस को। भीड़ के अंदर गिरते धक्का-मुक्की में थोड़ी-सी बारिश थोड़ी-सी धूप की गरमी की उमस में किसी के साथ नहीं बनती है उसकी अगर यह अपना दुख कहता है तो वह अपना होने से भी लोगों का जितना दुख नहीं होने से लोगों का उतना दुख दिखा रहे हैं सब अपने सारे खाली पैकेट भर लेने के लिए कुछ न कुछ अर्थराशि। हर बार तिरंगा फेराने वाला आदमी आज नहीं चढ़ सकता है सीढ़ियां बालाश्रम की प्रार्थना बन गई आज देश-

अधिकारी / राजेन्द्र किशोर पंडा

रचनाकार:  राजेन्द्र किशोर पंडा (1944) जन्मस्थान:  बाटलगा, संबलपुर कविता संग्रह:  गौण देवता(1972), शतद्रु अनेक(1977), निज पाइँ नाना वाया(1980), चौकाठरे चिरकाल(81), शैलकल्प(1982), अन्या (1988), बहुव्रीहि(1991) गुणा-भाग में वह भारी धुरंधर चावल और भूसे में न समझे कोई अंतर बालू और कांच का वह बनाता पहाड़ घेरे हुए चारों ओर चींटीयों के हाड़ बार बार रेंगते दिखाता है फण पार नहीं करता रेखा-लक्ष्मण असार आदमी बार- बार कहता हैं `सर`'सर' छोंक देता इस पार, छींक देता उस पार तल के ऊपर तल, उसके ऊपर और तल-तल नरक के गुलाल से सारे प्राणियों में हलचल चेहरे पर हंसी का दिखावटी दर्पण,दिल में खाली खोखलापन कहीं पर गजब का भोलापन, कहीं पर अजब का चालूपन कलम-रेखा से बनाते कुत्ते को बिल्ली शिशु- झूले के पास करते पशु-केलि बिकता है जिसका विवेक मेज के नीचे करे हितोपदेश वही अधिकारी आँखें मींचें मुंह में राम बगल में छुरी अवैध कारोबारों में भक्ति पूरी गुणा-भाग में वह भारी धुरंधर पत्थर और ईश्वर में न जाने कोई अंतर ।