कविता पागल की चिट्ठी / हरप्रसाद दास

रचनाकार: हरप्रसाद दास (1945)
जन्मस्थान: गजराजपुर, कटक
कविता संग्रह: आलोकित वनवास (1978), मंत्रपाठ (1991), गर्भगृह (1993), दूरत्वर भ्रम (1994)

कहीं से आए या न आए
प्रति सप्ताह में एक बार अवश्य आती है उस पागल की चिट्ठी
सुदूर साल जंगल से घिरे किसी एक गांव से,
लिखता है एक पागल
संक्षिप्त में सारी दुनिया की खबर
सुनाता है एक या दो असंभव कहानी के आरंभ
फिर बताता है मुझे लाल सागर के अंदर
जहाज चलाते उसके किसी नाविक पुत्र की
आत्म हत्या का सही समय
सूर्य पूरी तरह से शीतल होने से पहले,
मरने के लिए यह मनुष्य का अंतिम अवसर
आदत पड गई पढने को उसकी चिट्ठी
नहीं पढ़ पाने पर कम सेकम उन पर नजर डालने की
संभल कर रखी मैंने उसकी हर एक चिट्ठी

इस तरह कई साल बीत गए।
पागल अच्छा है
भाले की नोंक जैसे उसके अंसतोष के बिखरे नुकीले अक्षर
बरसते जा रहे है पथरीली जमीन पर

मैं भी अच्छा इंसान हूँ पागल की भर्त्सना न कर
उसकी चेतावनी की तरफ ध्यान दिए बिना,
निश्चिंत होकर उस भाव से मानो
पागल की चिट्ठी आते रहते समय तक पृथ्वी बची रहेगी, 
सूर्य किरणों में रहेगी गरमी और फलों में लगातार रस सृष्टि की नरमी
लाल सागर का वह नाविक, इस सागर से उस सागर में
इधर- उधर घूमकर बिता देगा उसका जीवन काल
किंतु जीवन को लेकर रह जाएगा एक संदेह सारी धरती पर
जब तक कोई धरती के किसी न किसी कोने में चिट्ठी
लिखता रहेगा एक पागल

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