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बड़ा आदमी / अनिल दाश

रचनाकार:  अनिल दाश (1970) जन्मस्थान: कविता संग्रह:  ओड़िया,संबलपुरी तथा कौशली भाषा की स्थानीय पत्र–पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित हमारे गांव का गंवार आप से अच्छा किसी के मरने पर घाट तक तो जाता है लकड़ी पुआल इकट्ठा करता है शादी-ब्याह में पानी ढोता है दरी बिछाने में मदद करता है मेलों और उत्सवों में यथाशक्ति, चंदा देता है। आप तो अमावस के तारे की तरह न बारिश होने देते हो, न एक घडी उजियाला करते हो। हम कहते हैं आपको अपना पर आप समझते हैं हमे पराया अशुद्ध ब्राहमण के बदले हुए गमछे की तरह कभी हमारे व्यवहार से नफरत करते हो तो कभी प्रसूती के अधसूखे वस्त्र की तरह हमारे काराबोर को अछूत गिनते हो। आप भीड़ के बीच बैठते हो हम किनारे पर खडे रहते हैं आप मंच से भाषण देते हो नीचे से हम सुनते हैं आपको डॉक्टर पहले देखता है हम कतार में प्रतीक्षा करते हैं आप जमीन एकड में जोतते हो हम विस्वा में गुजारा करते हैं आपको रूपए हजारों फेंकने में मजा आता है हमें चवन्नी देने में पसीना आता है आप भीख को भी हक से मांगते हो हम हक को भी भिखारी की तरह हमें क्या फायदा आप विदेशी रंग में डूबो या हेलीकॉप्टर में उडो ? व

चाय का प्याला / दुर्गा प्रसाद पंडा

रचनाकार:  दुर्गाप्रसाद पंडा (1970) जन्मस्थान:  बारिपादा कविता संग्रह:  निआं भीतरे हात (2006),पोस्टकार्ड कविता गाँव के मुहाने पर झोपड़ी होटल में छप्पर के नीचे शहर में नहीं दिखने जैसी जगह पर हमेशा झूलता है चाय का एक मैला प्याला क्यों झूल रहा है वह चाय का प्याला, नीचे रखे हुए दूसरे चाय के प्यालों से पूरी तरह अलग होकर ? छप्पर के नीचे कालिख लगे कोने में जिसके पास समय असमय दूर से आता संभ्रम कुंठा से बढ़ता एक कमजोर हाथ। थोड़ी दूर खड़ा होकर पूरी चाय पीकर प्याले को धोकर वापस लटका देता है उस कोने में। फिर चाय का प्याला उस जगह गया कैसे ? यह सवाल फण उठाकर बार बार इधर-ऊधर मेरे रास्ते में रूकावट करता है मैं सोचता हूँ मैं वास्तव में ऐसे निरीह जीव को नहीं जानता हूँ चाय के प्याले का वहाँ झूलने का रहस्य मेरा निरीहपन नहीं है किसी कुंवारी कन्या का अनाहत सतीत्व इतना दुर्मूल्य और पवित्र जिसे मैं ढककर रखता हूँ खूब मेहनत से। मैं स्वयं से पूछता हूँ क्या मेरी कविता का हाथ लंबा होकर उतारकर ला सकता है वहाँ से चाय के प्याले को और मिलाकर रख सकता है दूसरे प्यालों के साथ ? बुरी तरह से घायल हो गया इस निरीह

मन आकाश का चंद्रमा / मनोरंजन महापात्र

रचनाकार:  मनोरंजन महापात्र (1969) जन्मस्थान:  भुवनेश्वर कविता संग्रह:  ओड़िया स्थानीय पत्र–पत्रिकाओं जैसे भूलग्न,सूत्रधार,नीलकईं का सम्पादन । मेरे मन के आकाश में अगर तूँ चंद्रमा बन जाए तो मैं इस चन्द्रमा से क्यों प्रकाश मागूँगा ? अगर तुम रातरानी के फूल बनकर हर दिन मेरे झरोखे के पास खिलने लगो क्यों मैं फाल्गुन को चिट्ठी लिखूँगा, कहो ? अगर तुम गंगा बनकर मेरे रास्ते में बहो, तो मैं क्यों काशी, वाराणसी जाऊँगा। अगर तुम अपनी इच्छा से अनुसूया बन जाओ क्यों 'लक्ष-हीरा" की कोठरी में मैं रात को बिताऊँगा मेरे हृदय की सरिता ऐसे भर जाती है तुम्हारी इच्छा के काशतंडी फूल में विनिद्र होकर संभाल लूँगा तंद्रा से भरी रातें कामना के सोमरस के साथ कृष्ण तिथियों में।

भेंट / सुचेता मिश्र

रचनाकार:  सुचेता मिश्र जन्मस्थान:  लीड बैंक लेन, पोलिस लाइन,पुरी-751002 कविता संग्रह:  पूर्वराग (1991),शीला-लिपि (1995) मेरे भीतर क्या देख रहे थे मेरे जीवन की अच्छाइयों या बुराइयों को, तुम क्या खोज रहे थे विनाश, उत्थान या पतन टूटी हुई चौखट के कुचले हुए प्रेम में ? हम दोनो बहुत समय से चाय पी रहे थे अंधेरे हवारहित कमरे में गरम चाय की तरह हमारे आँसू भी गरम थे। तुमने कहा था जीवन में ऐसा क्यों हुआ वैसा क्यों नहीं हुआ मुझे लगा हम चाय क्यों पी रहे हैं हमारे भीतर खलबली गले तक प्यास से मैने तुम्हें गिलास पानी दिया पानी के भीतर मेरा डूबा प्रतिरूप कुछ पृष्ठ किसी की एक अंतहीन पवित्र प्रतीक्षा । तुम अचानक खड़े हो गए अविकल नहीं झुकने वाले  सड़ी हुई जड़ों वाले  पेड़ की तरह  कहने लगे, “जा रहा हूँ।”

पटरानी / मोनालिसा जेना

रचनाकार:  मोनालिसा जेना (1964) जन्मस्थान:  मुकुंद प्रसाद, खोर्द्धा कविता संग्रह:  निसर्ग ध्वनि (2004), ए सबु ध्रुव मुहूर्त (2005),अस्तराग (असमिया से ओड़िया में अनूदित) इस ‘मानसी’ शब्द से जिसने मुझे पहली बार बुलाया था ? जिसने दिया प्रेम का प्रहार बिना अपराध के ? एक बंद कोठरी के नीले मायालोक में मैं धीरे- धीरे हल्की हो गई थी जिस प्रकार उड़ती प्रजापति की तरह जिस प्रकार झरती हुए पंखुडी की तरह और उसके बाद ? पश्चिम घाट के उस शिखर पर नाहरगढ़ की उजड़ी राजगिरि और लहू से भरी खाड़ी की तरह दीर्घ श्वास, पांच शताब्दी का...। उस समय मैं थी शायद एक पहाड़ी राजा की पटरानी राजा भ्रमण से लाया था मुझे नाच नहीं, गीत नहीं, बाजा नहीं, वेदी नहीं प्रेमी की पहली पसंद, पटरानी हंसिनी को समर्पित कर रहा था शतस्वस्ति, लक्ष्यहीन तीर राजकुमार का.....। तब भी उस स्थापित राममहल के भीतर में प्रणय प्रार्थिनी, नौ रानी हम कोई गूंथती मोती माला कोई सिलती है मसलीन बूट और कोई सजाती है व्यस्क राजा के चौसठ कला विन्यास में...। मैं प्रेम में जैसे पागल अतिक्रांत प्रतीक्षा में पांच राते ध्यान टूटा नहीं सड़ गया राजा का राजभोज

हाथ / खिरोद कुंवर

रचनाकार:  खिरोद कुंवर (1964) जन्मस्थान:  राजपुर, ब्रजराजनगर कविता संग्रह:  गाँ घर रे कथा (2005), पाहा तलरे छाएं (2010) काई लगी दीवार से खिसकती है जैसे पुरानी चिपकी हुई मिट्टी हाथ से खिसक जाते हैं वैसे प्यार, मुहब्बत और अपनापन। आग से खेलते खेलते फुर्सत कहाँ मिलती है हाथ को ? अपना पराया,ईर्ष्या आलोचना का समय तो पहले से ही खत्म हो गया । हाथ में अब कहाँ रह गया वह जादू उम्र की तलवार धार जैसे चढाव चढने वाले लोगों में । कहीं यह हाथ बहुरूपिया तो नहीं या फिर अंधेरी तंग गली में रेंगने वाला कोई सांप ? खूब लंबी पहुँच वाले हाथ असंभव को संभव करने वाले हाथ के करीब रहने के लिए हर कोई आतुर भले कुछ भी हो उसकी प्रकृति। क्या हाथ शरीर के नियंत्रण में होता है, विवेक की सुनता है ? या फिर यह हाथ अमृत की तलाश में भटकती कोई जोंक  ? शिखर पर पहुँचने के लिए निर्लज्ज होकर जोडता रहता है हाथ बार-बार कभी काट डालता है उसके बराबरी में उठने वाले दूसरे हाथों को।

लडकी देखना / वासुदेव सुनानी

रचनाकार:  वासुदेव सुनानी जन्मस्थान:  मुनिगुडा, जटगड,नुआपाड़ा कविता संग्रह:  अनेक किसि घटिबारे असि (1995),महुल बण(1998),अस्पृश्य (2002),करड़ि हाट ( 2005), छि: (2008), कालिआ उवाच (2010) क्या जरूरत मुँह पर पाउडर लगाने की पसीने के लिए इत्र की जब ऐसी चंचलता हो शरीर के रोम-रोम में,  बलुई मृदा में प्रस्फुटित होते चाकुंडा पेड़ के नए पत्तों की तरह सारे सपनें साकार होते दिखते जैसे ही लड़की देखने की खबर मिलती दुनिया में सब स्वाभाविक लड़की की उम्र तीस साल शादी के बाजार में बीतती उम्र पीठ पर चलते केंचुए की तरह पास की दुकान से सुनाई पड़ने वाले हिंदी सिनेमा के हिट गीत या पड़ोसी घर की भीड़ के असहनीय कोलाहल में कुछ भी सुनाई नहीं देना जैसे- जैसे समय पास आता जाता उसके मुख का तेज निखरता जाता छाती में गाम्भीर्य, कमर में कोमलता,  पाँवों में नम्रता आँखों में चपलता धीरे- धीरे प्रकाशित करती जाती घर द्वार पड़ोस परिजन सारा परिवेश और सँभाल नहीं पाती लड़की नाचने लगती माँ की चोंच में तिनका देखकर नए नए पैर निकलते नवजात चिड़िया की तरह फुदक ने लगती छोटी छोटी पोखारियों में पानी देखकर आषाढ़ की ब्राह्मणी मेंढ