बड़ा आदमी / अनिल दाश

रचनाकार: अनिल दाश (1970)
जन्मस्थान:
कविता संग्रह: ओड़िया,संबलपुरी तथा कौशली भाषा की स्थानीय पत्र–पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित

हमारे गांव का गंवार
आप से अच्छा
किसी के मरने पर घाट तक तो जाता है
लकड़ी पुआल इकट्ठा करता है
शादी-ब्याह में पानी ढोता है
दरी बिछाने में मदद करता है
मेलों और उत्सवों में
यथाशक्ति, चंदा देता है।
आप तो अमावस के तारे की तरह
न बारिश होने देते हो,
न एक घडी उजियाला करते हो।
हम कहते हैं आपको अपना
पर आप समझते हैं हमे पराया
अशुद्ध ब्राहमण के बदले हुए गमछे की तरह
कभी हमारे व्यवहार से नफरत करते हो
तो कभी प्रसूती के अधसूखे वस्त्र की
तरह हमारे काराबोर को अछूत गिनते हो।
आप भीड़ के बीच बैठते हो
हम किनारे पर खडे रहते हैं
आप मंच से भाषण देते हो
नीचे से हम सुनते हैं
आपको डॉक्टर पहले देखता है
हम कतार में प्रतीक्षा करते हैं
आप जमीन एकड में जोतते हो
हम विस्वा में गुजारा करते हैं
आपको रूपए हजारों फेंकने में मजा आता है
हमें चवन्नी देने में पसीना आता है
आप भीख को भी हक से मांगते हो
हम हक को भी भिखारी की तरह
हमें क्या फायदा
आप विदेशी रंग में डूबो
या हेलीकॉप्टर में उडो ?
विदेशों से आते समय
लाते दो पैसों का सामान
गाते घूमते बस्ती के इस कोने से उस कोने तक।
हेलिकॉप्टर में उडते समय
सिर के ऊपर एक पीक थूक भी देते तो
नाचते घूमते हम इस बस्ती से उस बस्ती तक
आपके लिए तो हम
खट्टे आम की तरह बेकार
मछली की खाल की तरह बेगार
और कितने दिन
नशे के लालच में घूमते रहेंगे हम
दावत की आस में रेंगते रहेंगे हम
दिन आएगा
समझ लेगा हमारा वंशज
भूख के मारे तलवें नही चाटेगा
काम खोजेगा,
भले ही मलबा फेंकेगा
नमक के झोल में
फिसल जाएगा उसका जीवन
और डुबकी लगाएगा
तृप्ति के ठंडे तालाब में
आम आदमी
बड़प्पन के साथ ।

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