अकेला / अकेला ताड पेड़ / हरिहर मिश्र

रचनाकार: हरिहर मिश्र (1944)
जन्मस्थान: मार्कण्डेश्वर साही, पुरी
कविता संग्रह: शंख-नाभि (1973), अक्षम देवता (1978), चन्द्रबिंब (1981), लालकढ़र तपस्या (1981), चाहाणी मंडप (1987), सूक्त शतक ,स्वप्न विनिमय (1992), भित्तिर चंदन (1994), मोहनी कन्यार विष (1995), संध्यादर्शन (1998)

है भी या नहीं भी
इसी विश्वास के साथ समय पार करते आदमी को
मैदान में बुला रहे हो ? बुलाते रहो

पुराने परेड की तरह चल रहा है

तिरेसठ वर्षीय सेवा निवृत आदमी की तरह
यह स्वाधीनता कभी हँसती है
जब अपना इतिहास बताती है तो
कभी रोती है न सूखने वाले घाव की पीड़ा से
बालकोनी में खड़े होकर लंबा आदमी
देख रहा है भीड़ को
किसी एक फ्लू संक्रमित सांस को।

भीड़ के अंदर गिरते धक्का-मुक्की में

थोड़ी-सी बारिश थोड़ी-सी धूप की गरमी की उमस में
किसी के साथ नहीं बनती है उसकी
अगर यह अपना दुख कहता है तो वह अपना
होने से भी लोगों का जितना दुख
नहीं होने से लोगों का उतना दुख
दिखा रहे हैं सब अपने सारे खाली पैकेट
भर लेने के लिए कुछ न कुछ अर्थराशि।

हर बार तिरंगा फेराने वाला आदमी
आज नहीं चढ़ सकता है सीढ़ियां
बालाश्रम की प्रार्थना
बन गई आज देश-वंदना

वह पहुंचकर वहाँ
अनाथ बच्चों को
खादी के कुर्ते की पॉकेट से
बांट रहा है चॉकलेट
अंजलि- अंजलि भर रंगीन जरी के साथ  !
कहाँ हैं नेताजी
कहाँ बापूजी
कुछ नहीं करता वह बैठकर बरगद पेड़ के चबूतरे में ।

समगरापाट में हुई धान की खेती
मगर गाँव के तालाब सब खाली।

नेताजी को ससम्मान लाने
गए हैं मुखिया जी
भूमाफिया की बाइक के पीछे बैठ
वापस आकर भूखे बच्चों को बाँटेंगे पुडिया

यूनिफॉर्म नहीं होने पर बच्चा खुले बदन,
रो- रोकर लौट रहा है घर ।
शायद हुआ है उसे बुखार
आज प्रार्थना बन गई है देश वंदना
तभी स्कूल फाटक में लटकी हुई कागजी पताकों की माला से
से एक कागज जाकर लटक जाता है एक अकेले तालपेड़ पर।

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