सबके बाद भी तुम हो / अन्नपूर्णा महांति

रचनाकार: अन्नपपूर्णा मोहंती (1953)
जन्मस्थान: माधवपुर, केन्द्रपाड़ा
कविता संग्रह: रूटि और ऋत (1987),पाद-स्पर्श (1989),नीलनदीर लुह(1991), नीलमेघ(1993), निशब्द वात्या (1999),एकाएका (2001) ,सारा स्वप्न (2003), मुहूर्तन्कर मोक्ष (2008), देह-विदेह (2009), यंत्रस केते निजर (2011),माटि कुंठेई (2011), अनुवाद :- सिंधी से ओड़िया (याद का ही प्यार जी –श्री कृष्ण खोटवानी )

हवा को मना कर दिया है
तुम्हें नहीं दे
मेरे शरीर की गंध
बादल को मना किया है
सारे आंसू धारा बनकर
तुम्हारे आगे बरसेंगे नहीं।
समय की ग्रीष्म यात्रा
सभी समय बराबर नहीं होते 
मेरा अपने आप पर अखंड -विश्वास
तुम क्यों सहन करोगे
मेरे लिए दुखों का श्रावण !

भावनाओं के दिन थे
नहीं लौटेंगे हृदय के रक्तरंजित दिन
स्वामी और संतान से छुपाकर
जीवन के जलते हुए मध्यान्ह में
आज भी नहीं है कि तब भी नहीं थे
वे तुमको कभी भी नहीं मिल सकते
जिंदा रहने के लिए अनाहत फाल्गुन
दूर में हो तो रुक जाओ
एक तीव्र इच्छा
छटपटा रही है
स्पर्श की प्यास लेकर
दृष्टि के लिए
चपलता के लिए
अतृप्त दीर्घ प्यास लेकर
जीवन से और एक जीवन को पूरा करने के लिए।

तब भी नहीं पूछूंगी
हाथ छुड़ाकर
कौन वह कलम
कौन रोकेगा तुम्हारे 
जानने का मन
खुला हृदय
बिना प्रत्याशा के
उस दिन से मेरा कुछ नहीं
कंगालिन मैं
जीवन को पकड़कर केवल
देखती हूँ ।

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