झूठ की कहानी / आशुतोष परिडा

रचनाकार: आशुतोष परिड़ा (1946)
जन्मस्थान: भुवनेश्वर
कविता संग्रह: मुक्त यातना (1973),इपसित क्रोध (1987),चांडाल (1991),शब्द-भेदी (1995)

मेरे सिवाय और कौन जानता है
झूठ भी इतना पवित्र हो सकता है
और हमारे लिए एक पवित्र
देश का निर्माण कर सकता है !

हम पानी के साथ झूठ को पीते हैं
हवा के साथ साँस में लेते हैं
खाने में खाते हैं उसको
नींद में स्पर्श करते हैं
पोशाक में पहनते हैं
सिर पर बाँधते हैं
और उसकी गंध में हर समय
झर्झर होते रहते हैं ।


परत के ऊपर परत
जम गया है झूठ का पहाड़
कौन उसमें से केवल
रत्न खोजता चलेगा
कौन उसके ऊपर
नक्षत्र पकड़ने के लिए चढ़ेगा
फिर कौन उसकी तलहटी में गिरेगा
मिट्टी और पत्थर चबाने के लिए
झूठ ने हमें
परत दर परत पकड़ रखा है ।

कौन जानता है कब
झूठ का प्रथम बीजारोपण
इस धरती पर हुआ था।
छल-कपट का पहला फल
पेड़ की डाली पर कब पका था,
उस समय सारे देवताओं 
ने खाकर हजम कर लिया था
मनुष्यों की हड्डी और मांस,
घुस गए थे सभी अमुंहा मंदिर में
और प्रार्थना से
सारे झूठ पवित्र हो गए ।

झूठ के पास हमने समर्पित कर दिए
अपने आँसू और आयु
एक गहरे गड्ढे के अंदर
धँस गए पाँव 
एक शून्यता के भीतर
फँस गया मस्तिष्क 
काल-काल से हम झूठ को ढोए जा रहे हैं
झूठ के अंदर हमारा आता -जाता संसार ।

झूठ ने हमें बाँधकर रखा है
अगर झूठे झूठ का
परिचय देने कभी सत्य आ जाए,
हम इधर- उधर
छिन्न- भिन्न हो जाएँगे।

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