चित्रध्वनि / प्रमोद कुमार महांती

रचनाकार: प्रमोद कुमार मोहंती (1942)
जन्मस्थान: जगतसिंहपुर, कटक
कविता संग्रह: क्रमशः(1967), देवीपाद(1981), अकात कात(1995

अपने उपसंहार -उत्सव में
मुझे गाना होगा वह गीत
जिसे मैंने कभी गाया नहीं
नवजात शिशु की तरह
अर्थहीन उच्चोक्ति से
या आधे उच्चारित
सारे तन की भाषा द्वारा
उस मोक्षदायक अर्ध-चेतना के
गायन के समय में
तुम क्या जीवित रहोगे  ?

जिस प्रकार नृत्य-वर्णमाला के
बारे में मुझे कुछ भी जानकारी नहीं
नाचने की तरह कभी नाचा नहीं
ऐसे नाचना पड़ेगा स्वाभाविक मुद्रा में
सफेद राख के 'छैना-पीठा'की दाह के समय
संकुचित होने जैसे
मेरी वही आवरणरहित प्रशंसा
और पराजयमुक्त मुहूर्त में
तुम क्या जीवित रहोगे  ?

नई- नई रागिनियों वाली सुबह में
तुम तो वह चिरंतन सुप्रभात हो
मेरे अंगों का भेदन करने वाले दिन से
जोड़ों का दर्द दुगना करने वाली
तुम तरह- तरह की चपला चित्रणी स्मृतियाँ हो
पता था मुझे ,
हर दिन वह मेरे पास पहुँचेगा।

उस दिन से
हल्का दर्द और जख्मों पर मल्हम लगाने की
निरपेक्ष निरंग वेला में
श्मशान के काले बालू से
मेरा धुँआ बनने के समय
सभी मंदिरों में घंट -ध्वनियाँ
तुम्हारा नाम बनकर
मुझे केवल सुनाई पड़े
उस चित्र ध्वनि के समय
तुम क्या जीवित रहोगे ?

सम्पत्ति के उस क्षण में तुम आकर खड़े हो गए
न स्वर्ग, न नर्क, न पाताल
कहीं पर भी मेरी
जगह नहीं बदलेगी।
फिर से मैं मिट्टी के साथ मिल जाऊँगा
सोच रहा हूँ तुम्हें देख सकूँ
और ध्यानपूर्वक
तुम्हारी चित्र ध्वनि सुन सकूँ।

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