कल्पनामयी / बैकुंठनाथ पटनायक

रचनाकार: बैकुंठनाथ पटनायक (1904-1979)
जन्मस्थान: बड़ाम्बागड़, कटक
कविता संग्रह: काव्य संचयन(1943/1953), उत्तरायण(1963), अरुणश्री (1975), अन्यान्य कविता(1979 )

चिर कल्पनामयी !
चमकते सूर्य के प्रकाश में तुम
हंसी थी मेरे मही
उज्ज्वल उषा तरुण जीवन में
पुण्य तारें चपल सपनों में
तुम्हारे संस्पर्श से जीवन-गाथा
कह रहा हूँ छंद में।

चिर कल्पनामयी !
रुप-पिपासा जगी प्राणों में
बहने लगी अश्रुधारा !
स्वप्नमयी चिर सुंदर
धन्य हो गया मेरा मरु अंतर
लगाकर किसी मधु-मलय का
नव-मल्लिका वास
देखे हो देखा है, मंद हास
भूल चुका हूँ जीवन की सैकड़ों विफलता
भूल चुका हूँ घावों की पीड़ा।

हे उत्सवमयी  !
मेरा तरुण मन रम्य कानन में
तुम हो सर्वजयी
रुप के अमर उस अमृत को चखकर
मुग्ध हो गई मेरी आँखें अपलक
धन्य जीवन धन्य स्वप्न
धन्य कविता कवि
तुम्हारी रुप विभा पाकर
याद नहीं मुझे दुखों के दिन
किस तरह हो गए पार
हे उत्सवमयी !
हे कौतुकमयी !
हे चिर चपल, चिर चातुर्य
कवि-प्राण को दहन कर दो।

संध्या के मेघ ! प्रीति का रास !
मंद वह हंसी, सुमधुर उल्लास
सुदूर गगन, हे इंद्रधनु
कभी पकड़ में नहीं आते हो
तुम्हारे लिए इस कवि ने
खोजे व्याकुल मैदान जंगल
होकर क्षुब्ध आत्म-हरा !

आकुल जीवन श्यामल क्षेत्र में
कम से कम एक बार बहाओ मलय वही
छुप जाती हो कौतुकमयी !

हे चिर पुण्यमयी !
कवि यौवन की ठंडी पवन
आज तुरंत जा रही है बह !
झर रही हैं कोपलें, सुप्त छंद
शून्य कानन में कुसुम गंध
शून्यता चित्त मंदिर में आज
वेदना अश्रुपूजा
रुप-रहस्य बिल्कुल नहीं समझा !
सब अस्थिर, सब नश्वर
हर मेले में तुम सुंदर
हंसता जीवन अरूप पदम !
अतीत की बातें सोचकर
लाया हूँ अर्घ्यथाली
स्वप्नलोक का अश्रु हास्य
कहो, ग्रहण करोगी या नहीं ?
हे कल्पनामयी !

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