मृगया / चिंतामणी बेहरा

रचनाकार: चिंतामणि बेहेरा (1927-2005)
जन्मस्थान: मयूरभंज
कविता संग्रह: वेत-पद्म,स्वस्तिका (1950),नूतन साक्षर (1957),दे वैदेही भूलि जाअ (1961) तृतीय चक्षु (1975), नील लोहित (1976), निजे निजेर साथी (1996),उदयास्तर कविता (2003)


जंगल से हिरणी की लाश अपने साथ लाकर
शिकारी मित्र ने दिखाया अपना पराक्रम
“आओ, कविवर देखो , ऐसे मारी गोली,
एक ही गोली में काम तमाम ।”

मैने देखा एक हिरणी
की सुन्दर तारांकित खाल में
गोली की विषैली चोट से विदीर्ण हृदय
और नीली आँखों के कोने में जमे रक्त -दाग

आज उन नीली आँखों में सागर की गहराई नहीं
नीले गगन का आकर्षण नहीं
धरती पर क्लांत सोया हुआ एक नृत्यशील प्राणी ,
जंगल की गोद में खेल- खेलकर जी जिसका भरा नहीं 

वन-कन्या जैसी प्राणों में थी सरलता
शायद वह आई थी अपने प्रेमी की खोज में
अपने नरम होठों से करके मुलायम घास का मदिरा-पान
उसके हृदय में थे प्रेम-गीत और भविष्य के संगीत

आँखों में लालसुरा का नशा
और हृदय सारी आशाओं की विवरणिका
जंगली घास -शैय्या पर अपने प्रेमी के पद चिन्ह खोजते
प्रेमालाप सुनने को बेताब ।

तभी सहसा एक गोली ने छलनी कर दिया उसका सीना
प्रीतिच्युत, वृंत-च्युत जैसे गिर पड़ी वह
उसका प्रेम-मिलन हो न सका मनुष्य के प्रताप से
उसे यह पता नहीं था मृत्यु-बाण भी होता है प्रेम के रास्ते ।

मृत हिरणी को देखकर शायद बारम्बार आ रहा था आज विचार 
विश्वास और प्रेम का निष्पाप निष्कलंक हृदय
जो अवतीर्ण हुआ था धरती पर मुक्ति और मैत्री के गीत गाने
अकस्मात चक्रव्यूह में फंसकर हुआ मौत का शिकार ।

मृत्यु ने ग्रास लिया प्रेम -सरिता का संगीत सारा 
धरती से ओझल हो गए आशा के स्फुलिंग प्रपात
हे मृगिणी!, हे हृदय , एक प्राण स्निग्ध निर्मल
भू -शैय्या पर सुप्त असहाय क्षुब्ध हाहाकार ।

मृत हिरणी जैसे कितने हृदय देश- देशांतरों में
असहाय होकर आज मरते हैं धूल-सेज पर
फिर भी आदमी आज दिखाता है अपना पराक्रम
गर्व से बताता है अपने परिजनों को अपना शिकारीपन ।

हिरणी की लाश को देखकर तृप्त था मेरे बंधु का मन
मैं स्वीकार करता हूँ उसका चमत्कारिक लक्ष्य भेदन 
मगर मृत हिरणी मरी नहीं है, आज मेरा मन
कर रहा है हृदय-तल में प्रेम -रक्त का अन्वेषण ।

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