मेरा गाँव मल्लिकाशपुर / फकीर मोहन सेनापति

रचनाकार: फकीर मोहन सेनापति (1843-1918) “व्यास-कवि”
जन्मस्थान: मल्लिकाशपुर, बालेश्वर
कविता संग्रह: उत्कल-भ्रमण(1891), पुष्पमाला(1894), उपहार(1895), अवसर वासरे(1908), बौद्धावतार-काव्य(1909), प्रार्थना(1911), पूजा फूल (1912), धूलि(1912)


अट्टालिकाओं से भरा हुआ एक सुंदर नगर
चारों तरफ जिसके हिलोरे खाता लाल-सागर
अनगिनत नदियाँ, झरनें, पहाड़-जंगल
छोटी-छोटी हटलियों से खचाखच भरा यह स्थल
घाट-घाट का पानी पीकर साना सारा जीवन
नजर नहीं आया ऐसा सुंदर वतन मेरे नयन
जिधर भी जाओ मगर लगा रहता मेरा मन
हमेशा तड़पता करने को इसके दर्शन
सही में यहाँ कुछ नहीं ऐसी विशेष संपत्ति
पर यहाँ हरदम लुभाती प्राकृतिक चित्र-विमोहिनी-शक्ति,
भले ही हैं यह धनहीन, शोभाहीन, सौंदर्यविहीन
मगर यह गांव याद आता मुझे प्रतिदिन
शाम होते ही बजाते शंख, ग्राम्य नर-नारी
सारे देवालयों में बजती एक साथ घंटियां सारी
कभी, कहीं नहीं देखी मैने ऐसी सुंदर संध्या
इतने सुन्दर चंपा, मोगरे के फूल और रजनीगंधा
गांव की पोखरियों में खिलते कुमुद यत्र-तत्र
कहीं नहीं ऐसी फुलवारी, पखेरू-दल अन्यत्र
मंदमंद बहती यहाँ, हरदम ठंडी ठंडी पवन
खुली जगह पर जहाँ, हमेशा करता मैं शयन
यहाँ की सुहानी चांदनी रात और शीतल हवा
देशाटन पर कहीं नहीं मिली मुझे ऐसी आबोहवा
इस गाँव के रास्ते की बालू और धूल
कभी भी नहीं सकता हूँ मैं उसे भूल
सर्दी में गेंदाफूलों की खुशबू, आम-मंजरी का माधुर्य
कहीं मिलेगा सारे भारतवर्ष में इतना प्राचुर्य?
गांव के पशु-पक्षियों का प्यार, ऋतुओं की मिठास
लोगों से हँसी-मजाक करने का लहजा,
कहीं मिलेगा सारे भारतवर्ष में इतना मजा 
ऐसा गांव पाकर धन्य हो गया मेरा जीवन
बार- बार यहाँ आने को, तरसता हैं मेरा मन
मेरे कानों में सुनाई पड़ता उसका नाम सुमधुर
इस छोटे से गांव का नाम हैं मल्लिकाशपुर
भाग्य से करता हैं अक्सर मैं विदेश-भ्रमण
क्या मिट जाएगा इस गांव का अंतिम जीवन?
अंतिम अभिलाषा मेरी, पुनः पाने को यह धाम
हो मेरा अस्थि-विसर्जन और समाधि निज ग्राम।

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